Monday, January 12, 2015

कश्मीर का इतिहास

नीलमत पुराण के अनुसार-
भारत के उत्तर में हिमालय की गोद में एक विशाल झील में ज्वालामुखी फटने जैसी क्रिया के पश्चात झील का पानी बाहर निकल गया और सुन्दर स्थान उभर आया। क्योंकि स्थान अग्नि की शक्ति (ज्वालामुखी विस्फोट) से बना था और अग्नि की शक्ति पौराणिक मतानुसार “सती”है, इसलिए तत्कालीन भूमि विशेषज्ञों ने इस स्थान को “सती देश” नाम दिया। कश्यप ऋषि ने इस भूखंड को निवास योग्य बनवाने का कार्य किया। झील के पानी को निरंतर बहने का मार्ग देने के लिए ऋषि कश्यप ने भगवान शंकर से सहायता मांगी। भगवान शंकर ने नदी विशेषज्ञों के साथ खुदाई का उदघाटन किया और अपने त्रिशूल से एक वितस्ति (बालिश्त) भूमि खोदकर अभियान प्रारम्भ किया। वितस्ति के कारण ही नदी का नाम “वितस्ता” पड़ा। नगर निर्माण के पश्चात सर्वसम्मति से ऋषि कश्यप के पुत्र नील को कश्मीर का प्रथम राजा बनाये जाने का उल्लेख नीलमत पुराण में किया गया है।
महर्षि कश्यप के नाम पर ही इस भू खंड को कश्मीर कहा जाने का उल्लेख है।

प्रसिद्द इतिहासकार कल्हण ने “राजतरंगनी “ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास पाँच हजार वर्ष पूर्व से होने उल्लेख किया है। राजतरंगनी के अनुसार कश्मीर राजा “गोनन्द प्रथम” हुआ। महाभारत में राजा जरासन्ध वध का प्रसंग भी गोनन्द से जुड़ा हुआ है। गोनन्द के पश्चात उसके पुत्र दामोदर का राज्याभिषेक किया गया। तथा दामोदर की मृत्यु श्रीकृष्ण साथ एक युद्ध के दौरान होने का भी उल्लेख मिलता है।

राजतरंगनी ग्रन्थ के अनुसार पांडव नरेशों द्वारा कश्मीर पर राज करने की ऐतिहासिक जानकारी का भी पता चलता है। एक और इतिहासकार श्री गोपीनाथ श्रीवास्तव की पुस्तक “कश्मीर समस्या और पृष्ठ भूमि” अनुसार राजा गोनन्द के पश्चात 35 राजाओं के कश्मीर पर शासन का उल्लेख है। मार्तण्ड तथा अन्य मंदिरों के भग्नावशेष को पांडवलरी या पांडव भवन कहने की भी प्रथा कश्मीर में है। 250 ईसा पूर्व सम्राट अशोक ने कश्मीर को अपने अधिकार में ले लिया था। तत्कालीन कश्मीर की राजधानी “पुराणाधिष्ठान “ वर्तमान में पादरेठन, पर सम्राट अशोक ने इसके नजदीक ही “श्री-नगरी” नगर की स्थापना की थी।

प्रसिद्द चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार सम्राट अशोक ने पांच हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर में बसाया था। कालान्तर में कश्मीर पर कुषाण आधिपत्य हुआ। यद्यपि इन कुषाण राजाओं की राष्ट्रीयता तुर्क थी मगर कुषाण राजा कनिष्क पर बौद्ध धर्म का गहरा पड़ा और उसने स्वयं भी बौद्ध धर्म अपनाकर कश्मीर का राज-धर्म भी बौद्ध घोषित कर दिया। राजा कनिष्क का बसाया नगर कनिष्क पर अब कनिसपुर नाम से बारामुला में अवस्थित है।

छठी शताब्दी के प्रारम्भ (525 ईस्वी )में हूणों ने कश्मीर पर विजय प्राप्तकर राज किया। अत्याचारी हूण भी कालांतर में कश्मीर में प्रचलित शैव-मत के प्रभाव में आये और उसके अनुयायी बन गए। हूण राजा मिहिरकुल ने मिहिरेश्वर मंदिर की स्थापना भी की।
625 ईस्वी में कर्कोटा वंश राजा दुर्लभवर्धन का कश्मीर की गद्दी पर बैठने का उल्लेख है। 631 ईस्वी में कश्मीर यात्रा आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने दो वर्ष सरकारी अतिथि के रूप में यहां निवास किया था। उसके अनुसार सम्राट हर्षवर्धन जिनकी राजधानी कन्नौज में थी, कश्मीर आधिपत्य था और उनके प्रतिनिधि के रूप में दुर्लभवर्धन कश्मीर के राजा थे।

१०१५ ईस्वी में महमूद गजनवी ने कश्मीर पर हमला किया। समय वहां पर महाराज संग्रामराज का शासन था। इस युद्ध में बुरी तरह हारने के पश्चात पुनः 1021 ईस्वी में महमूद गजनवी ने कश्मीर पर ज्यादा ताकत से हमला किया। कश्मीरी जनता और सेना की बहादुरी तथा काबुल के राजा त्रिलोचन की सेनाओं से बुरी तरह पीटने के बाद अपने अंत समय तक गजनवी कश्मीर की ओर देखने की हिम्मत नहीं की।
मुश्लिम इतिहासकार नजीम ने अपनी पुस्तक “महमूद ऑफ़ गजनी “में लिखा है----
1021 में कश्मीर पर दोबारा आक्रमण कर जीतने इच्छा से आये गजनी को बर्बादी की संभावना से डरकर दुम दबाकर भागना ही उचित लगा। कश्मीर को जीतने का इरादा उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।

1128 से 1150 ईस्वी तक शूरवीर राजा जय सिंह के कश्मीर पर राज करने का वर्णन है। इस समय तक मुस्लिम सुल्तानों की कुदृष्टि कश्मीर पर पैड चुकी थी। राज्य में सेना तथा प्रशासन में मुस्लिमों भी होने लगा था। १३३९ की हिन्दू शासक कोटा रानी के होने का उल्लेख पाया जाता है। इस समय तक अरब देशों के मुश्लिम व्यापारी, मजहबी रहनुमाओं और इस्लामिक झंडाबरदारों का घाटी में आना शुरू हो गया था।

कोटा रानी के पश्चात शाहमीर मुस्लिम सुलतान का मिलता है। इसके समय में हर तरीके से इस्लाम में धर्मांतरण का काम शुरू हुआ। मुश्लिम इतिहासकार एम डी सूफी ने अपनी पुस्तक “कश्मीर” में इसका उल्लेख किया है---हमदान (तुर्किस्तान-फारस) मुश्लिम सईदों की बाढ़ कश्मीर पहुंची। सईद अली हमदानी और सईद शाही हमदानी, दो मजहबी नेता हजारों सईदों के साथ 1372 ईस्वी में आये और मुश्लिम शासकों की मदद से गावं-गावं में मस्जिद, ख़ानक़ाहें, दरगाहें और इस्लामिक केंद्र खोले। इन सईदों के मजहबी जूनून, इस्लामी साम्राज्यवादी इरादों और हिन्दू कश्मीर को इस्लामी राष्ट्र में बदलने के खतरनाक इरादों को इतिहासकार एम डी सूफी ने “कश्मीर” पुस्तक में विस्तार से लिखा है। मुस्लिम इतिहासकार हसन ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर” में धर्मांतरण जिक्र इस प्रकार किया है----
“सुलतान सिकंदर बुतशिकन (1393) ने शहरों में घोषणा करा दी थी कि जो हिन्दू मुसलमान नहीं बनेगा वह या तो देश छोड़ दे या फिर मार डाला जाए। इस तरह सुल्तान सिकंदर ने लगभग तीन खिर्बार (सात मन ) जनेऊ हिन्दू धर्म परिवर्तन करने वालों से जमा किये और जला दिए। धार्मिक ग्रंथों को जलाया दिया गया, मंदिरों को ध्वस्त कर वहां अनेक मस्जिदें बनवाई गयी। “

अंग्रेज इतिहासकार डॉ अर्नेस्ट ने अपनी पुस्तक “बियोंड द पीर जंजाल” में लिखा---
“दो-दो हिन्दुओं को एक ही बोर में बंद कर झील में फैंक दिया जाता था। सिकंदर का सरकारी आदेश था “इस्लाम-मौत या देश निकाला। “सईद मोहम्मद हमदानी ने सुल्तान सिकंदर को मूर्ति तथा मंदिर तोड़ने के लिए प्रेरित किया। इतिहासकार हसन के अनुसार “सबसे पहले सुलतान सिकंदर की दृष्टि मटन (कश्मीर) के विश्व प्रसिद्द मंदिर मार्तण्ड सूर्य मंदिर पर पड़ी। इसे तोड़ने में एक वर्ष का समय लगा और बाद में इसमे लकड़ियाँ भरकर आग लगा दी गयी। इसी प्रकार बिजविहार स्थान पर बिजेश्वर मंदिर तथा आसपास के 300 मंदिरों को ध्वस्त कर उन्ही के पत्थरों से बिजेश्वर खनक मस्जिद का निर्माण किया गया।

इतिहासकार मोहम्मद फाक की पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर” के अनुसार ओरंगजेब के 49 वर्षों के शासन काल में अत्याचार का खूनी खेल सबसे अधिक चला। 1420 से १४७०इस्वि तक मुस्लिम शासक जैन उल अब्दीन का शासन रहा। बाद में चक शासकों ने जैन उल अब्दीन के पुत्र हैदर शाह को खेदड दिया और 1586 तक कश्मीर पर शासन किया। 1586 में अकबर ने कश्मीर को जीत लिया। 1752 में कश्मीर पर
अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली का नियंत्रण रहा। पठानों ने 67 साल कश्मीर घाटी पर राज किया। 1733 से 1782 तक महाराजा रंजीत सिंह का शासन रहा। बाद में राजकाज की बागडौर डोगरा शाही खानदान के वंशज राजा गुलाब सिंह को सौंप दी गयी। जिनके वंशज महाराजा हरी सिंह ने 1947 तक कश्मीर पर शासन किया।


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