पुरातन
समय में हमारे पूर्वज पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ (चप्पल) पहनते थे। पैरों
में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत:
वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में
प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके। इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी। उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया।कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके। इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी। उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया।कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।
खड़ाऊ के सिद्धांत का एक और सरलीकृत स्वरूप हमारे जीवन का अंग बना वह है
पाटा। डाइनिंग टेबल ने हमारे भारतीय समाज में बहुत बाद में स्थान पाया है।
पहले भोजन लकड़ी की चौकी पर रखकर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठकर ग्रहण किया
जाता था। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती
हैं। इन परिस्थिति में शरीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है
चौकियों पर बैठकर भोजन करना
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